बुक रिव्यु ऑफ़ साये में धुप

साये में धूप

कहाँ तो तय था चिरागां हरेक घर के लिए ,
कहाँ चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए। 

यहाँ दरख़्तों के साये में धूप लगती है ,
चलो यहाँ से चलें और उम्र भर के लिए।

न हो कमीज़  तो पाँवों  से पेट ढँक लेंगे, 
ये लोग कितने मुनासिब हैं, इस सफ़र के लिए। 

वे मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता, 
मैं बेकरार  हूँ आवाज़  में असर के लिए। 

तेरा निज़ाम है सील दे ज़ुबान शायर की,
ये एहतियात ज़रूरी है इस बहर  के लिए। 

यह किताब क्यों ?

 साये में धूप  – दुष्यंत जी की कविताओं/ग़ज़लों  का ऐसा संग्रह है जो 1975  में पहली बार प्रकाशित हुआ था और आज भी मशहूर और प्रासंगिक है। उनकी कविताओं की कितनी पंक्तियाँ अक्सर सुनी थी बिना ये जाने कि  किसने लिखी हैं। कोई कविता या ग़ज़ल अच्छी लगती  तो खोजने पर मालूम पड़ता ये दुष्यंत जी की है।  इसलिए जब उनका ये कविता संग्रह दिखा तो इसे अपने छोटे से किताब संग्रह में जोड़ लिया। 

 किताब 

साये में धूप – देश की आज़ादी के दो दशकों बाद के भारत के सामाजिक और राजनैतिक दौर को दर्शाती कुछ ग़ज़लों का संकलन हैं।  इन ग़ज़लों में सरकार के प्रति निराशा और रोष दिखेगा तो गरीब और पिछड़े वर्ग के प्रति सहानभूति। आज़ादी  के इतने वर्षों बाद भी जब गरीब और शोषित वर्ग के जीवन में कोई परिवर्तन नहीं आया और उसकी दशा वैसी ही रही तब बहुत से लेखकों ने अपने -अपने तरीके से इस बात को उजागर किया और उस वर्ग के आवाज़ को मुखर किया। दुष्यंत जी उनमे अग्रणी थे और उनकी ये कृति  इस बात का प्रमाण है। उनकी शैली इतनी प्रभावशाली है और  इतने लोगों तक शायद इसलिए भी पहुँची क्यूंकि उन्होंने अपनी बात ग़ज़लों के द्वारा कही जो कि  आसानी से लोगों की जुबान पर चढ़ जाते थे और काफी इस्तेमाल भी होते थे जैसे – 

भूख  है तो सब्र कर, रोटी नहीं तो क्या हुआ, 
आजकल दिल्ली में है ज़ेरे बहस ये मुद्दा। 

मत कहो आकाश में कुहरा घाना है,
यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है 

हो गयी है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए। 

अधिकतर गज़लें  सीधे-सीधे सरकार के ऊपर एक तंज था जो उस दौर के हालातों को देखकर निकले आक्रोश व् पीड़ा को बड़े ही बेबाक़ तरीके से कही थी । बहुत से साहित्यकार खुल कर जनता की जुबान बनकर सामने आते हैं और बड़ी बेबाकी से हुकूमत को आइना दिखाते हैं और उसकी गलतियां समाज को भी दिखाते हैं। दुष्यंत जी ने यह काम बड़े ही प्रभावी ढंग से किया। और सिर्फ लिखने के लिए नहीं लिखा बल्कि जो महसूस किया या जो देखा उसको निडर होकर कागज़ पर उतारा।  

आम जनता के प्रति उदासीनता और भ्रष्टाचार के बारे में भी बड़े ही सटीक और धारदार तरीके से लिखा जो आज भी प्रासंगिक लगता है। 

ये सारा जिस्म झुकार बोझ से दुहरा हुआ होगा,
मैं सजदे में नहीं था, आपको धोखा हुआ होगा 

यहाँ तक आते आते सूख जाती  हैं कई नदियां,
मुझे मालूम है पानी कहाँ ठहरा  हुआ होगा। 

यह कुछ शेर जो उस समय के हुक्मरानों के लिए कहे गए थे आज भी उतने  ही या उस से ज्यादा प्रासंगिक हैं  –

तुम्हारे पाँवों  के नीचे कोई जमीन नहीं,
कमाल ये है कि फिर भी तुम्हे यकीन नहीं। 

मैं बेपनाह अंधेरों को सुबह कैसे कहूँ,
मैं  इन नज़रों का अँधा तमाशबीन नहीं। 

तुझे क़सम  है खुदी को बहुत हलाक न कर ,
तु इस मशीन का पुर्जा है , तू मशीन नहीं। 

इस संग्रह की एक-एक ग़ज़ल अनमोल है और आपको सोचने पर विवश करेगी। एक फ़्रांसिसी लेखक, पत्रकार और आलोचक Jean-Baptiste Alphonse Karr ने कहा था –

 “The more things change, the more they stay the same.”

ये किताब पढ़ते हुए शायद आपको ऐसा ही कुछ महसूस हो।  कुछ पचास साल पहले ये गजलें कही गयी थी और दुष्यंत जी के ही शब्दों में  उन्होंने इन ग़ज़लों के माध्यम से अपनी दोहरी तकलीफ़ (व्यक्तिगत व् सामाजिक) को ग़ज़लों के माध्यम से जनता तक पहुँचाया। पढ़ेंगे तो पाएंगे कि ये तो आज के दौर की ही बात हो रही है।  

 लेखक परिचय 

जन्म: 1 सितम्बर, 1933, राजपुर-नवादा, जिला बिजनौर (उ.प्र.)
शिक्षा: एम.ए. (हिन्दी), इलाहाबाद

प्रकाशित कृतियाँ

कविता-संग्रह: सूर्य का स्वागत, आवाज़ों के घेरे, जलते हुए वन का वसन्त और साये में धूप (ग़ज़लें)। उपन्यास: छोटे-छोटे सवाल, दुहरी जिन्दगी और आँगन में एक वृक्ष। नाटक: मसीहा मर गया, मन के कोण (एकांकी)। नाट्य काव्य: एक कण्ठ विषपायी।

इसके अलावा कुछ आलोचनात्मक पुस्तकें, कुछ उपन्यास (जिन्हें खुद दुष्यन्त कुमार ‘फालतू’ कहते थे) लिखे तथा कुछ महत्त्वपूर्ण पुस्तकों के अनुवाद भी किए। साये में धूप उनका अन्तिम तथा अत्यन्त चर्चित ग़ज़ल-संग्रह है।

मृत्यु: 30 दिसम्बर, 1975, भोपाल (म.प्र.)

बेहद उम्दा ग़ज़ल संग्रह, यदि आप कविता व् ग़ज़लों में रूचि रखते हैं तो  यह किताब आपको जरूर पढ़नी चाहिये। 

इस किताब को खरीदने के लिए नीचे दिए गए लिंक का प्रयोग कर सकते हैं। 

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