“होरी कदम बढ़ाये चला जाता था। पगडंडी के दोनों ओर ऊख के पौधों की लहराती हुई हरियाली देखकर उसने मन में कहा – भगवन कहीं गौ से लरखा कर दे और डंडी भी सुभीते से रहे, तो एक गाय जरूर लेगा। देशी गायें तो न दूध दें , न उनके बछवे ही किसी काम के हों। बहुत हुआ तो तेली के कोल्हू में चले। नहीं , वह पछांई गाय लेगा। उसकी खूब सेवा करेगा। कुछ नहीं तो चार-पांच सेर दूध होगा। गोबर दूध के लिए तरस-तिरसकर रह जाता है। इस उमिर में न खाया-पिया तो, तो फिर कब खायेगा ? साल-भर भी दूध पी ले , तो देखने लायक हो जाए। बछवे भी अच्छे बैल निकलेंगे। दो सौ से काम की गोंई न होगी। फिर, गऊ से ही तो द्वार की सोभा है। सबेरे-सबेरे गऊ के दर्शन हो जाएँ तो क्या कहना ! न जाने कब यह साध पूरी होगी , कब वह शुभ दिन आएगा।
हर एक गृहस्थ की भांति होरी के मन में भी गऊ की लालसा चिरकाल से संचित चली आती थी। यही उसके जीवन का सबसे बड़ा स्वप्न , सबसे बड़ी साध थी। बैंक सूद के चैन करने या जमीन खरीदने या महल बनवाने की विशाल आकांछाएँ उसके नन्हे से ह्रदय में कैसे समातीं !”
यह किताब क्यों ?
अगर आप पढ़ने में रूचि रखते हैं और हिंदी -उर्दू में पढ़ते हैं तो प्रेमचंद को पढ़ना लाज़िम बन जाता है। इस किताब के बारे में भी बहुत सुना था , इसलिए यह किताब चुनी और पढ़ी।
किताब
मूलतः यह कृति गांव में अपने परिवार के साथ रहने वाले होरी-धनिया के जीवन के इर्द-गिर्द कही गई है। यह कहानी है होरी और उसकी पत्नी के संघर्ष की, जो हर संघर्ष का सामना करते हुए अपने परिवार का भरण-पोषण करते हैं। यह उपन्यास 1936 में लिखा गया था और उस समय के समाज को यथार्थवादी तरीके से प्रस्तुत किया है। इसका प्लाट भ्रष्ट तंत्र में जी रहे इंसान के जीवन की एक सच्चे और तीखी तस्वीर प्रस्तुत करता है। आपका उस समय के समाज से परिचय होता है , समाज में बसी रीतियों और कुरीतियों के बारे में पता चलता है। प्रेसचंद बड़े ही सहज तरीके से समाज और उसमे छुपी और जाहिर विसंगतियों को अपने लेखन के जरिये पाठकों तक पहुंचाते हैं।
कहानी होरी और उसके परिवार की है , जो छोटे किसान हैं और जिनका एक छोटा सा सपना है की उनकी अपने एक गाय हो। इसी परिवार और उसके आस-पास के समाज की कहानी है “गोदान”|
इसमें जहाँ एक ओर गांव की सरलता देखने को मिलती है वहीँ दूसरी ओर जात-पात, गरीबी , भुखमरी , जमींदारों के अत्याचार , बाल-विवाह जैसे कड़वे सच भी देखने को मिलते हैं। शहर के जीवन का भी इसमें व्याख्यान मिलता है, अमीरी और अमीरी का दिखावा, आदर्षवाद और उसका खोकलापन , और अनेक मुखोटे पहने लोग कि बताना मुश्किल हो जाए कौन सा असली चेहरा है। उनके रचे पात्र समाज को दर्शाते थे और उन्ही पत्रों के माध्यम से प्रेमचंद वर्तमान समाज पर एक सटीक टिपण्णी भी करते थे।
” मेहता जी का भाषण जारी था –
‘पुरुष कहता है, जितने दार्शनिक और वैज्ञानिक आविष्कार हुए हैं, वह सब पुरुष थे। जितने बड़े-बड़े महात्मा हुए, वह सब पुरुष थे। सभी यौद्धा , सभी राजनीति के आचार्य, बड़े-बड़े नाविक, बड़े-बड़े सब कुछ पुरुष थे; लेकिन इन सब बड़े-बड़ों के समूहों ने मिलकर किया क्या ? महात्माओं और धर्म -प्रवर्तकों ने संसार में रक्त की नदियां बहाने और वैमनस्य की आग भड़काने की शिव और क्या किया, यौद्धाओं ने भाइयों की गर्दनें काटने की सिवा और क्या यादगार छोड़ी ………’
ओंकारनाथ उठकर जाने को हुए — विलासियों के मुहँ से बड़ी-बड़ी बातें सुनकर मेरी देह भस्म हो जाती है।
खुर्शेद ने उनका हाथ पकड़ा – आप भी सम्पादकजी निरे पोंगा ही रहे। अजी यह दुनिया है, जिसका जी में आता है, बकता है। कुछ लोग सुनते हैं और तालियां बजाते हैं। चलिए किस्सा ख़तम। ऐसे-ऐसे बेशुमार मेह्ते आएंगे और चले जाएंगे और दुनिया अपनी रफ़्तार से चलती रेहगी। ”
सबसे बड़ी बात जो उनके इस उपन्यास में है वो है लेखन की सहता और सरलता। बड़े ही सहज तरीके से वो बड़ी ही संजीदा बातें कह जाते हैं और ये आपको पढ़ते हुए मालूम पड़ेगा। इस उपन्यास को पढ़ते हुए आप जान जाएंगे कि क्यों प्रेमचंद जी को उपन्यास सम्राट कहा जाता है और क्यों उन्हें हिंदी-उर्दू के साहित्य का एक अग्रणी स्तम्भ कहा जाता है।
लेखक परिचय
प्रेमचंद (31 जुलाई 1880 – 8 अक्टूबर 1936) हिन्दी और उर्दू के महानतम भारतीय लेखकों में से एक थे । मूल नाम धनपत राय श्रीवास्तव, प्रेमचंद को नवाब राय और मुंशी प्रेमचंद के नाम से भी जाना जाता है। उपन्यास के क्षेत्र में उनके योगदान को देखकर बंगाल के विख्यात उपन्यासकार शरतचंद्र चट्टोपाध्याय ने उन्हें उपन्यास सम्राट कहकर संबोधित किया था। प्रेमचंद ने हिन्दी कहानी और उपन्यास की एक ऐसी परंपरा का विकास किया जिसने पूरी सदी के साहित्य का मार्गदर्शन किया। आगामी एक पूरी पीढ़ी को गहराई तक प्रभावित कर प्रेमचंद ने साहित्य की यथार्थवादी परंपरा की नींव रखी। उनका लेखन हिन्दी साहित्य की एक ऐसी विरासत है जिसके बिना हिन्दी के विकास का अध्ययन अधूरा होगा। वे एक संवेदनशील लेखक, सचेत नागरिक, कुशल वक्ता तथा सुधी (विद्वान) संपादक थे। बीसवीं शती के पूर्वार्द्ध में, जब हिन्दी में तकनीकी सुविधाओं का अभाव था,उनका योगदान अतुलनीय है। प्रेमचंद के बाद जिन लोगों ने साहित्य को सामाजिक सरोकारों और प्रगतिशील मूल्यों के साथ आगे बढ़ाने का काम किया, उनमें यशपाल से लेकर मुक्तिबोध तक शामिल हैं। उनके पुत्र हिन्दी के प्रसिद्ध साहित्यकार अमृतराय हैं जिन्होंने इन्हें कलम का सिपाही नाम दिया था।
जरूर पढ़ें
यह उपन्यास अपने आप में एक महाकव्य है। और अगर आप हिंदी साहित्य में रूचि रखते हैं तो ये आप जरूर पढ़ें , प्रेमचंद और उनके लेखन की सरलता व् श्रेष्ठता को जानने और समझने के लिए।
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