मैं बड़ा हुआ हूँ ये बात सुनते सुनते
कि इक्कीसवीं सदी भारत की होगी
पहले स्कूल, फिर कॉलेज और उसके बाद
जाने ही कितनी बार ये बात सुनी थी।
यही बात अनेक बुद्धिजीवियों ने,
विचारकों ने भी कई बार कही थी
यूँ तो ये बात नेताओं ने भी कही थी
कई बार, और जाने कितने मंचों से
बस जब वो ये बात कहते
तभी भरोसा डगमगाता था।
पर अन्यथा नेताओं के,
जब भी ये बात कही जाती
तब यही कहा जाता, आने वाली सदी
भारत की है, भारत के युवाओं की है
पंख लगा कर विज्ञान और तर्क के
अपने कर्म और विवेक से,
ले जाएंगे देश को आगे
यही बात कई बार कलाम ने भी कही थी
इसलिए भरोसा और विश्वास था।
आज पार कर लियें हैं इस सदी के बीस साल
तो पूछता हूँ अपने से, और सब से ये सवाल
क्या हम पहुँच पाये, निकले थे जहां के लिए
या भटक गए राह बीच में ही?
हमें तो बनाने थे स्कूल, विश्विद्यालय
और रिसर्च संस्थान अनेक
हमें तो गांव कस्बों तक हस्पताल पहुंचाने थे
वो औरत और बच्चे जिन्हें मीलों चलना पड़ता है
पानी के लिए, उनके गांव तक पानी पहुंचाना था।
हमें लड़ना था मिलकर
गरीबी से, भुखमरी से, अशिक्षा से,
अन्धविश्वाश से, पित्रसत्ता से, जातिवाद से
और ऐसी अनेक कुरीतियों से
हमे लड़ना था मिलकर
किसानों के, मज़दूरों के हक़ के लिए
और देखो, हम लड़ रहे हैं आपस में
धर्म के नाम पर, जाती के नाम पर
जिस युवा को इस सदी का नेतृत्व करना था
वो वर्तमान छोड़, उलझा हुआ है झूठे इतिहास में
वो खुद ही फँसा हुआ हैं नफरत के सैलाब में
वो फँसा हुआ झगड़े में हिंदू-मुसलमान के।
सोचो क्या यही चाहा था हमने
इक्कीसवीं सदी के भारत से।