“पवित्रता का मुहं दूसरों की अपवित्रता के गंदे पानी से धुलने पर ही उजला होता है। वे हमेशा दूसरों की अपवित्रता का पानी लोटे में ही लिए रहते हैं। मिलते ही अपवित्रता का मुंह धोकर उसे उजला कर लेते हैं।
उस दिन भी दांत खोदते आए। भोजन के बाद कलंत -चर्चा का चूर्ण फेंकना जरूरी होता है। हज़्मा अच्छा होता है। उन्होंने चूर्ण फांकना शुरू किया -आपने सुना, अमुक साहब की लड़की अमुक लड़के के साथ भाग गयी और दोनों ने इलाहबाद में शादी कर ली। कैसा बुरा ज़माना आ गया ! मैं जानता हूँ कि वे बुरा ज़माना आने से दुखी नहीं , सुखी हैं। जितना बुरा ज़माना आएगा वे उतने ही सुखी होंगे – तब वह यह महसूस करके और कहकर गर्व अनुभव करेंगे कि इतने बुरे ज़माने में भी हम अच्छे के अच्छे हैं। कुछ लोग बड़े चतुर होते हैं। वे सामूहिक पतन में से निजी मुद्दा नुकाल लेते हैं और अपने पतन को समूह का पतन कहकर बरी हो जाते हैं। ”
यह किताब क्यों ?
हरिशंकर परसाई जी को आप अगर एक बार पढ़ चुके हैं तो आपको इस दुविधा का सामना नहीं करना पड़ेगा कि उनकी दूसरी किताब पढूं या नहीं। मैं उनको पहले पढ़ चुका हूँ तो कोई संशय आया ही नहीं।
किताब
अपनी अपनी बीमारी छोटी-छोटी व्यंग रचनाओं का संग्रह है। हर एक कहानी एक धारदार व्यंग के माध्यम से हमारे और हमारे आस पास के समाज की Hypocricy को सामने रखती है। उनका व्यंग महज हंसी मज़ाक न बनकर अपने पाठकों को आइना भी दिखता है। किताब के बारे में लिखने से बेहतर, किताब के कुछ अंश यहाँ लिखता हूँ , जिसे पढ़कर आप किताब और उनके लेखन के बारे में ज्यादा जान पाएंगे।
जो देश का काम करता है, उसे थोड़ी बदतमीज़ी का हक़ है। देश सेवा थोड़ी बदतमीज़ी के बिना शोभा नहीं देती। थोड़ी बेवकूफी भी मिली हो, तो और चमक जाती है।
एक कहानी “रामकथा क्षेपक” है जिसमे वो बताते हैं कि कैसे दिवाली पर सब लोग दीप जलाते हैं रामचंद्र जी के वापस लौटने पर। पर वह यह नहीं समझ पाते कि क्यों इस दिन व्यापारी खाता- बही बदलकर उसे लाल कपडे में बांधते हैं। इस पर उन्होंने जो व्यंग लिखा है वो शायद आज के लिखना संभव ही नहीं।
उनका लिखा कुछ और जो उनके धारदार व्यंग को दर्शाता है –
घोषणाएं की जाती थी कि यह चुनाव धर्मयुद्ध है; कौरव-पांडव संग्राम है। धृतराष्ट्र चौंककर संजय से कहते हैं – ये लोग अभी भी हमारी लड़ाई लड़ रहे हैं। ये अपनी लड़ाई कब लड़ेंगे ? संजय कहते हैं – इन्हे दूसरो की लड़ाई में उलझे रहना ही सिखाया गया है। ये दुसरे की लड़ाई लड़ते-लड़ते ही मर जाते हैं।
बीमारी को स्वास्थ्य मान लेने वाला मैं अकेला नहीं हूँ। पूरे समाज बीमारी को स्वास्थ्य को मान लेते हैं। जाती-भेद एक बीमारी है। मगर हमारे यहाँ कितने लोग हैं जो इसे समाज के स्वास्थ्य की निशानी समझते हैं ? गोरों का रंग-दंभ एक बीमरी है। मगर अफ्रीका के गोरे इसे स्वास्थ्य का लक्षण मानते हैं और बीमारी को गर्व से ढो रहे हैं। मुझे भी बचपन में परिवार ने ब्राह्मणपन की बीमारी लगा दी थी , पर मैंने जल्द ही इसका इलाज कर लिया।
बीमारी बर्दाश्त करना अलग बात है, उसे उपलब्धि मानना दूसरी बात। जो बीमारी को उपलब्धि मानने लगते हैं, उनकी बीमारी उन्हें कभी नहीं छोड़ती। सदियों से अपना यह समाज बीमारीओं को उपलब्धि मानता आया है और नतीजा यह हुआ है कि भीतर से जर्जर हो गया है मगर बहार से स्वस्थ होने का अहंकार बताता है।
किताब पढ़ते हुए आप पाएंगे कि मानो हरिशंकर परसाई जी आज के ही राजनीतिक और सामाजिक जीवन के बारे में बात कर रहे हों।
लेखक परिचय
हरिशंकर परसाई
जन्म: 22 अगस्त, 1924। जन्म-स्थान: जमानी गाँव, जिला होशंगाबाद (मध्य प्रदेश)।
निधन: 10 अगस्त, 1995।
प्रकाशित कृतियाँ: हँसते हैं रोते हैं, जैसे उनके दिन फिरे, (कहानी-संग्रह); रानी नागफनी की कहानी, तट की खोज (उपन्यास) तथा, तब की बात और थी, भूत के पाँव पीछे, बेईमानी की परत, वैष्णव की फिसलन, पगडण्डियों का जमाना, शिकायत मुझे भी है, सदाचार का ताबीज, विकलांक श्रद्धा का दौर (सा.अ. पुरस्कार), तुलसीदास चंदन घिसैं, हम एक उम्र से वाकिफ हैं। जाने पहचाने लोग, (व्यंग्य निबंध-संग्रह)।
रचनाओं के अनुवाद लगभग सभी भारतीय भाषाओं और अंग्रेजी में। मलयालम में सर्वाधिक 4 पुस्तकें।
‘परसाई रचनावली’ शीर्षक से छह खंडों में संकलित रचनाएँ।
बेहद उम्दा व्यंग संग्रह, सबको एक बार जरूर पढ़ना चाहिए।
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