Bolna Hi Hai by Ravish Kumar on freedom of expression and the meaning of it

Bolna hee hai

“बोलने के लिए जानना पड़ता है।  जब जानने  की हर कोशिश नाकाम कर दी जाये , जानकारी कम कर दी जाये तो बोलने का अभ्यास अपने-आप कम हो जाता है।  न्यूज़ चैनलों और अख़बारों में मेहनत से खोजकर लायी गयी ख़बरें गायब होती चली गयी। ऐसी ख़बरों से जानने की बेकरारी बढ़ती थी।  हिंदी के कई अख़बारों ने जानबूझ कर उन नौजवानों को औसत बना रखा है जिनके 91 प्रतिशत कॉलेज औसत या औसत से नीचे के थे। लोगों ने समझा मीडिया बता रहा है , लेकिन मीडिआ तो अब वही बताता है जो उसे बताने के लिए बताया जाता है। सत्ता को पता है जब लोग जानेंगे, तभी बोलेंगे।  जब बोलेंगे ,तभी किसी को सुनाएंगे। जब कोई सुनेगा, तभी उस पर कुछ बोलेगा। अब तमाम मीडिया तंत्र के द्वारा जो जानकारी आप तक पहुँच रही है वह आपके बोलने की क्षमता को सीमित कर रही है। “

यह किताब क्यों ?

रवीश कुमार की ये किताब आते ही चर्चा में थी। जिन विषयों को लेकर वो अपने कार्यक्रम  में आते हैं , उससे ये मालूम होता है की वो भीड़ का हिस्सा नहीं हैं और ये तस्सल्ली भी होती है कि कुछ लोग हैं जो पत्रकारिता को आम नागरिकों के प्रति एक जिम्मेदारी समझते हैं। किताब आयी तो उत्सुकता थी कि क्या कुछ लिखा है और किन विषयों पर लिखा है, हालाँकि ये किताब के शीर्षक से जाहिर हो जाता है।  

 किताब 

बोलना ही हैकिताब की भूमिका पढ़ने से ही आपको अंदाजा लग जाता है कि किताब में क्या आने वाला है और लेखक क्या कहना और समझाना चाहता है। यह किताब वर्तमान समय का आइना है जो हमे दिखता है कि कैसे बीते कुछ वर्षों में पत्रकारिता का पतन हुआ है।  कैसे तमाम समाचार पत्र  या टीवी समाचारों ने जनता के मुद्दों से मुँह फेर लिया है और महज सरकार का मुखपत्र बन कर रह गए हैं।  किस तरह से समाचारों ने जनता को बेकार की ख़बरों में उलझाकर उनकी बौद्धिक और तार्किक क्षमता को कम किया है या ख़तम ही कर दिया है। कैसे समाचारों ने कुछ वर्षों में फ़र्ज़ी राष्ट्रवाद को बढ़ावा  दिया है और धार्मिक उन्मांद फैलाया है और एक भय का माहौल खड़ा किया है।

 किताब में रवीश फेक न्यूज़ के बारे में बात करते हैं और बताते हैं कि कैसे ये देश को एक रोबो रिपब्लिक में बदल रहा है। 

फेक न्यूज़ उस स्मार्ट फ़ोन की तरह है जो आपकी गर्दन को झुकाये रखता है। भक्त की गर्दन भी एक तरफ झुकी रहती है।  आप उसे लाख नईनई सूचनाएं दिखातें रहें, वह अपनी गर्दन नहीं उठाएगा। वह रोबोट में बदल चूका है। रोबोट आदमी की तरह काम कर रहा है और आदमी रोबोट की तरह। अगर कोई रोबोट से जनता बनने का प्रयास भी करेगा तो उसके लिए वापसी की ये प्रक्रिया आसान नहीं होगी।

रवीश जनता होने के अधिकार के बारे में लिखते हैं और बताते हैं कैसे हम ये अधिकार खो  रहे हैं।  कैसे निजता के अधिकार का हनन हो रहा है और हम में से बहुत से मूकदर्शक बने देख रहे हैं और कुछ खुश भी हो रहे हैं। ये किताब हमे आगाह करती है जब हम बोलना छोड़ देते हैं, तर्क करना छोड़ देते हैं तो हम नागरिक नहीं रह जाते महज एक ऐसी भीड़ बनकर  रह जाते हैं जिसको कहीं भी खदेड़ा जा सकता है। 

ये किताब वर्तमान के राजनैतिक व् सामाजिक भारत का एक भयावह किन्तु सच्ची तस्वीर प्रस्तुत करती है। पढ़ते समय हो सकता है आपको लगे कि कितनी निराशावादी किताब है , किन्तु ये आशा से भरी है, जो कि वर्तमान भारत की स्थिति की आलोचना  तो है  हीसाथ में आव्हान भी है समस्त देशवासियों से अपने अधिकारों को जानने और समझने का।  

 लेखक के बारे में 

रवीश कुमार लेखक, पत्रकार और सामाजिक आलोचक हैं। अभी एनडीटीवी में वरिष्ठ कार्यकारी संपादक के रूप में कार्यरत हैं। इससे पहले उनकी एक और किताब “इश्क़ में शहर होना” प्रकाशित हो चुकी है। बोलना ही है हिंदी के आलावा अंग्रेजी व् अन्यं भाषाओं में  भी उपलब्ध है। साल 2019  में रवीश को रेमॉन मैगसेसे अवार्ड से सम्मानित किया गया। 

यह किताब पठनीय है और सबको पढ़नी चाहिए। यह किताब आपको इसलिए भी पढ़नी चाहिए ताकि इस किताब में दिखाए भारत से अगर आप सहमत नहीं हैं तो आप किताब की तर्कसंगत तरीके से आलोचना कर सकें। 

इस किताब को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक का प्रयोग कर सकते हैं। 

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