Poetry

Poems

किताबें पढ़ते  हो ?
हर दिन कुछ आगे बढ़ते हो ?

पढ़ा करो हर दिन कुछ आगे बढ़ा करो

पढ़ो इतिहास कि ग़लतियाँ ना दोहराएँ  वही
पढ़ो इतिहास कि जान पाएं क्या है सही

पढ़ो विज्ञान कि समझ आएं दुनिया के रहस्य सभी
पढ़ो विज्ञान और बनो तर्कसंगत तुम भी

पढ़ो कवितायेँ  व् कहानियाँ  दुनिया भर की
ताकि समझ सको भाषा करुणा और प्रेम की

पढ़ा करो, हर दिन कुछ आगे  बढ़ा करो |

सवाल पूछा करो।

अगर आवाज़ उठाने को, सवाल पूछने को सही समझते हो
अगर महज़ एक मतदाता नहीं खुद को नागरिक समझते हो
तो आवाज़ उठाया करो और सवाल जरूर पूछा करो।

जरूरी नहीं कि तुम धरने पर बैठो
जरूरी नहीं कि तुम जुलूसों में जाओ
जरूरी नहीं कि तुम बड़ी बग़ावत करो

तुम बस अपने पढ़े लिखे को जाया न करो
हर बात को तर्क और विवेक से तोला करो
हर रोज़ छोटी-छोटी मिथ्याओं से लड़ा करो
ख़बरों से परे की ख़बरों की ख़बर रखा करो
जो दिखाया जा रहा है, आड़ में उसकी
क्या छुपाया जा रहा है  ये सोचा करो

जब सामान्य से परे सोचोगे
तो कई सवाल कौंधने लगेंगे
सवाल करोगे कि
कैसे अस्सी फीसद खतरे में है ?
और किससे  है खतरा इनको ?
भुखमरी में कौन से पायदान पे है हिन्दोस्तान ?
खुशहाल देशों की सूची मैं कहाँ है हम ?
क्यों महिलाएं भारत में सबसे असुरक्षित हैं ?
मंदिर – मस्जिद बन जाने से
क्या रोटी मिलेगी सबको ?
हिन्दू – मुस्लिम करने से
क्या पा जायेंगे हम?

जैसे भाप आईने में एक परत बना कर
आपका प्रतिबिम्ब धुंधला कर देता है
और साफ़ देखने  के लिए
आपको वो परत हटानी होती है
ऐसे ही सच्चाई जानने के लिए
कई परतें उधेड़नी पड़ती हैं
ये तो तय है जो दिखाया जा रहा है
सच उसके परे है, कुछ और
इसलिए सवाल करो
और सबसे पहले खुद से।

जब सामान्य से परे देखोगे
तब दिखेंगे वो सारे सवाल
जिनसे तुम्हारा सरोकार है
और जिन्हे तुमसे छुपाया जा रहा है
खोजो उन सवालों को और
मांगो  उनके जवाब
अगर सवाल पूछना और जवाब मांगना छोड़ दोगे
तो समझो इंसान होना छोड़ रहे हो

मैं बड़ा हुआ हूँ ये बात सुनते सुनते
कि इक्कीसवीं सदी भारत की होगी
पहले स्कूल, फिर कॉलेज और उसके बाद
जाने ही कितनी बार ये बात सुनी थी।

यही बात अनेक बुद्धिजीवियों ने,
विचारकों ने भी कई बार कही थी
यूँ तो ये बात नेताओं ने भी कही थी
कई बार, और जाने कितने मंचों से
बस जब वो ये बात कहते
तभी भरोसा डगमगाता था।

पर अन्यथा नेताओं के,
जब भी ये बात कही जाती
तब यही कहा जाता, आने वाली सदी
भारत की है, भारत के युवाओं की है
पंख लगा कर विज्ञान और तर्क के
अपने कर्म और विवेक से,
ले जाएंगे देश को आगे
यही बात कई बार कलाम ने भी कही थी
इसलिए भरोसा और विश्वास था।

आज पार कर लियें हैं इस सदी के बीस साल
तो पूछता हूँ अपने से, और सब से ये सवाल
क्या हम पहुँच पाये, निकले थे जहां के लिए
या भटक गए राह बीच में ही?

हमें तो बनाने थे स्कूल, विश्विद्यालय
और रिसर्च संस्थान अनेक
हमें तो गांव कस्बों तक हस्पताल पहुंचाने थे
वो औरत और बच्चे जिन्हें मीलों चलना पड़ता है
पानी के लिए, उनके गांव तक पानी पहुंचाना था।

हमें लड़ना था मिलकर
गरीबी से, भुखमरी से, अशिक्षा से,
अन्धविश्वाश से, पित्रसत्ता से, जातिवाद से
और ऐसी अनेक कुरीतियों से
हमे लड़ना था मिलकर
किसानों के, मज़दूरों के हक़ के लिए

और देखो, हम लड़ रहे हैं आपस में
धर्म के नाम पर, जाती के नाम पर
जिस युवा को इस सदी का नेतृत्व करना था
वो वर्तमान छोड़, उलझा हुआ है झूठे इतिहास में
वो खुद ही फँसा हुआ हैं नफरत के सैलाब में
वो फँसा हुआ झगड़े में हिंदू-मुसलमान के।

सोचो क्या यही चाहा था हमने
इक्कीसवीं सदी के भारत से।