” यह गंगौली कोई काल्पनिक गाँव नहीं है और इस गाँव में जो घर नज़र आएंगे, वे भी काल्पनिक नहीं हैं। मैंने तो केवल इतना किया है कि इन मकानों को मकांवालों से खली करवाकर इस उपन्यास के पत्रों को बसा दिया है। ये पात्र ऐसे हैं कि इस वातावरण में अजनबी नहीं मालूम होंगे , और शायद आप भी अनुभव करें कि फुन्नन मियां, अब्बू मियां , झंगटिया -बो, मौलवी बेदार, कोमलिया, बबरमुआ, बलराम चमार, हकीम अली कबीर, गया अहीर और अनवारुल हसन राक़ी और दूसरे तमाम लोग भी गंगौली के रहनेवाले हैं, लेकिन मैंने इन काल्पनिक पत्रों में कुछ असल पत्रों को भी फेंट दिया है। ये असली पात्र मेरे घरवाले हैं जिनसे मैंने यथार्थ की पृष्ठभूमि बनायीं है और जिनके कारन इस कहानी के काल्पनिक पात्र भी मुझसे बेतकल्लुफ़ हो गए हैं। ” — राही मासूम रज़ा
यह किताब क्यों ?
हिंदी के बेहतरीन उपन्यसों में “आधा गाँव” भी शुमार है। जब आप पढ़ने लगते हैं तो जानने लगते हैं कि कुछ उपन्यास हैं जिनको पढ़ना लाज़मी है। जब मैं पढ़ने और जानने की यात्रा पर निकला तो इस उपन्यास के बारे में भी मालूम पड़ा। जानने के लिए पढ़ा और पढ़ के बहुत कुछ जाना।
किताब
यह उपन्यास उत्तर प्रदेश के एक गाँव और वहां के रहने वालों की कहानी है। कुछ पात्र काल्पनिक है परन्तु उन पत्रों के साथ जो घटित होता है वह यथार्थ की धरती से जुड़ा हैं। समय है भारत की स्वाधीनता के समय होने वाले विभाजन का और उस विभाजन के प्रति गाँव के लोगों की मनः स्तिथि। कैसे मुस्लिम बाहुल्य गाँव होने के बावजूद यहाँ हिन्दू और मुस्लिमों के सम्बद्ध उनके धर्म के आधार पर नहीं थे।
कहानी के माध्यम से आपको उस समय के समाज का ताना-बाना देखने को मिलता है। गाँव में शिया जमींदार भी हैं तो सुन्नी कारीगर और जुलाहे जिन्हे कम जात का समझा जाता है और उसी तरह ठाकुर जमींदार है तो नीची जाती के समझे जाने वाले अहीर, चमार। किताब उस समय के माहौल को बखूबी दर्शाती है, महिलाओं के प्रति घर व घर के बहार होने वाले भेद भाव को बड़े ही सजह तरीके से दिखाया गया है।
समय जबकि स्वाधीनता के आस-पास का है पर गंगौली के बाशिंदो को “राष्ट्रवाद” से कोई खास सरोकार नहीं , उनका सारा जीवन गंगौली की परिधि में ही समाहित है। ऐसे में जब “पाकिस्तान” के बनने की बात होती है तो यहाँ के लोग क्या सोचते हैं इस बारे में। इसी दौरान मुस्लिम लीग व् कांग्रेस की क्या राजनीती रही। जो कुछ लोग पकिस्तान गए क्या वहां पर वो सिर्फ मुसलमान के तौर पे जाने गए या वहां भी उनकी जात और उनका सामाजिक अस्तित्व उनके साथ गया।
मूलतः इन्ही सब बातों के इर्द गिर्द की कहानी है आधा गाँव। सारे किरदार गाँव की बोली बोलते हैं और जैसी बोली जाती है वैसे बोलते हैं तो भाषा आपको ठेठ मिलेगी पूरी आम बोलचाल की तरह जिसमे गालियां भी शामिल हैं। एक ऐसा उपन्यास जो एक सामान्य से गाँव के रोज़मर्रा के जीवन व उनसे जुडी अनेक छोटी-बड़ी बातों के द्वारा अपने पढ़ने वालों को मुस्लिम समाज की बारीकियों से अवगत करता है।
भाषा एकदम ठेठ है और बाहर से उर्दू शब्दों का प्रयोग नहीं है इसलिए पढ़ने में थोड़ी कठिनाई हो सकती है।
लेखक के बारे में
जन्म : 1 सितम्बर, 1925। जन्मस्थान : गाज़ीपुर (उत्तर प्रदेश)। प्रारम्भिक शिक्षा वहीं, परवर्ती अलीगढ़ यूनिवर्सिटी में। अलीगढ़ यूनिवर्सिटी से ही ‘उर्दू साहित्य के भारतीय व्यक्तित्व’ पर पी-एच.डी.। फिल्म-लेखन को बहुत से लेखकों की तरह ‘घटिया काम’ नहीं, बल्कि ‘सेमी क्रिएटिव’ काम मानते थे। बी.आर. चोपड़ा के निर्देशन में बने महत्त्वपूर्ण दूरदर्शन धारावाहिक ‘महाभारत’ के पटकथा और संवाद-लेखक के रूप में प्रशंसित। एक ऐसे कवि-कथाकार, जिनके लिए भारतीयता आदमीयत का पर्याय रही। प्रकाशित पुस्तकें : आधा गाँव, टोपी शुक्ला, हिम्मत जौनपुरी, ओस की बूँद, दिल एक सादा काग़ज़, कटरा बी आज़ूर्, असन्तोष के दिन, नीम का पेड़, कारोबारे तमन्ना, क़यामत
जरूर पढ़ें
यह एक ऐसा उपन्यास जो हिंदी पढ़ने वालों को जरूर पढ़ना चाहिए।