मैं शर्मिंदा हूँ

मैं शर्मिंदा हूँ
अपने कुछ न कर पाने पर
सब देखते हुए चुप रह जाने पर

अपने सरों पर अपना घर उठाये ये लोग
दिनों- महीनों से पैदल चलते ये लोग
शहरों से बाहर निकलती हर सड़क पर,
भूखे प्यासे अपने गांव को जाते ये लोग
लाखों में है, पर नज़र नहीं आते ये लोग।

अख़बार की किसी तस्वीर में एक,
पैदल चलती बच्ची का एक क्लोज – अप
और उस क्लोज – अप से झांकती वो आँखें
मैं नहीं देखना चाहता उन आंखों में
वो फिर भी मुझे रह – रह कर ताकती हैं
मुझे मालूम है उन आंखों,
एक नहीं कई सारे सवाल हैं
मैं बस उन सवालों से उलझना नही चाहता
क्योंकि मेरे पास शर्मिंदगी तो है जवाब नही।

जब इतिहास लिखा जाएगा
तब इन लाखों लोगों का जिक्र भी आएगा
और इन पर हुए ज़ुल्मों को भी लिखा जायेगा
ज़ुल्म के सब भागीदारों को
कटघरे में खड़ा किया जाएगा

मैं भी वहाँ मिलूंगा, एक कटघरे में
शर्मिंदा, सर झुकाये।



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